कई रोज़, किसी काले बादल को खोल कर गटागट पीने को ,
या आसमान की नीली चादर ओढ़ कर सोने को जी चाहता है।
उपले ,बाड़े ,फूस ,खेत सूंघने का
या गीली मिट्टी में खेलने -लोटने का जी चाहता है।
लक्ष्मी गाय ,मोती कुत्ता , मोटा बिल्ला सब पर प्यार जताने को ,
या बिन नाम की ढीठ ,शोर मचाती मुर्गियों पर झूठ -मूठ गुस्साने को जी चाहता है।
किसी ऊंचे से टीले पर चढ़ कर बोल लगाने का -
जो छूट गया है - उसे वापस बुलाने का जी चाहता है।
आ तो गयी मैं सधे क़दमों से बहुत दूर तक
पर अचानक मुड़ कर दौड़ जाने का जी चाहता है।
जानती हूँ , कि जिस गोबर लिपे आँगन में मैंने
इत्मीनान की चारपाई बिछाई थी :
वह अब बस सपना है -
फिर भी जाने ये दिल क्या -क्या चाहता है।
I have never lived in country side but have occasionally experienced it for a few hours...and I simply love its leisurely pace of life and pure, crisp air.
ReplyDeleteNicely captured the deeper life there in your poem Varsha!
Hugs! Kabhi kabhi mera bhi yahi jee chahta hai!
ReplyDeleteI can always do with them >> especially from you..
ReplyDeleteaccha : of my generation , everyone has a gaon or des behind them :
ReplyDeleteI really love the opening.
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