कभी इस शहर के पेड़ इसकी सड़कों से इश्क किया करते थे.
झूम के उन्हें अपने सायों के आगोश में भरा करते थे .
हर सड़क पे इक खुशगवार सा मंज़र रहता था -
कभी रंगों और खुशबू का और छाँव की फैलती बाहों का .
लेकिन अब हर गली-चौराहे पे ,लाशें बिछी हैं -
बूढ़े और जवान पेड़ों की ,सब औंधे मुंह पथराई आँख देखते हैं.
मैंने देखा- JCB राक्षश के पीले जबड़े ,बूढ़े बरगद की बेइंतहा जड़े कुरेद रहे थे.
ओर पुराने नीम के ढेर ,चिता की लकड़ी की तरह सजे थे ,सड़क किनारे.
अब यह शहर तरक्की कर रहा है,और तरक्की पेड़ों से नहीं,
अजगर जैसी जानलेवा सडकों से होती है -जिनके पेट कभी भरते नहीं.
अब तो खाक उड़ती है ,और गाड़ियाँ भी -पंछियों को परवाज़ मगर नसीब नहीं.
कोह-ए-फिजा और ईदगाह से हो कर जहन्नुम की सड़क गुज़रती है यहीं से कहीं.
रात को देखा , बुझते कोयले जैसा मद्धम चाँद टंगा था ,शर्मिंदा सा
इक सब्ज शाख भी न मिली जिसे , अपना खिलता रुख छिपाने को.
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