कवितायेँ तो मेरे चारों तरफ़ हमेशा थीं -
मानो लफ़्ज़ों के ढेर लगे थे.
पर मैं मीठे के शौक़ीन बच्चे की तरह,
किस्से-कहानियों की टॉफी चूसती रही.
ज़रूर कुछ हसीं जुमलों से उलझती थी कभी-
पर यूं ही किनारों से खेल कर वापस आती.
फ़िर वो मिली बेधड़क ,बेबाक -
हर चीज़ पे अपनी राय देने वाली .
इक पल में झिड़कती ,झगड़ती,
दूसरे में शेयर कर लेती हर कुछ .
जैसे सभी उसके दोस्त हों .
और उसकी कविता वाली झोली में तो इतने छेद थे -
कि हर वक़्त दो-चार टपक जातीं पके आम की तरह.
अरे बाबा मैंने भी पढ़े हैं बहुत Plath ,Neruda ,कोलातकर,विजयन , Whitman वगैरह .
न जाने कितने नाम गिनाने , गिराने वाली.
पढ़े पर यूं दिल में उतारे नहीं-
और जो नाम के साथ गिर रहा था
वह तो एक जादू था -कभी ज़्यादा चलता कभी कम .
पर हौले-हौले कुछ तार जुड़ते गए,
निस्बत का असर करते गए .
कुछ मुलाकातें ज़हीनों से
अक्सर कितनी ज़रूरी हैं.
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