Words can create magic and I want to get lost in them for some part of each day.

August 10, 2011

कदमकुआं की कोठियाँ.

अब भी मालूम पड़ता है 
की बड़ी शानदार रही होंगी 
 ये कदमकुआं  की कोठियां 
वो लाल पत्थर के लम्बे बरामदे 
 वो हरे बांस की  जालियां
सफ़ेद खम्बों से लिपटी  चमेली 
Porch तक आते गोल  रास्ते
खड़ी होती होगी जहाँ एक गाड़ी
सामने एक सूखा  फव्वारा 
जो कभी इस उजड़े Lawn की शान होगा .

 कुछ इस शहर की तरह ही
 जिस के हर  गली चौक बाज़ार में 
 बिखरे हुए हैं जहीनों के नाम 
कहीं टूटा -फूटा दिनकर गोलंबर 
कहीं सच्चिदानंद सिन्हा लेन .
वीरान सी रामवृक्ष बेनीपुरी लायब्रेरी 
गड्ढों वाले  अज्ञेय और सांकृत्यायन मार्ग .
 कभी ये अज़ीम इस शहर में बसते थे.
गंगा किनारे बैठ के लिखते , गप-शप करते थे.
बेल और आम से सजी सड़कों पे शिरकत करते थे .

 अब तो बस गंगा है -
 कुछ कम बड़ी, कुछ ज़्यादा मैली .
और ये खंडहर होती हवेलियाँ .
इस अनेक गाँव वाले पुराने शहर के अतीत की  निशानियाँ .