सारा दिन आसमान की टूटी छत
टपकती रही -गुमसुम नज़ारों में
दर्द भरती रही.
शाम को जब दफ्तर के जबड़े से निकली मैं ,
सर में एक भारीपन था-
जो धीरे-धीरे उतरकर
दिल में पैठ रहा था.
ऐसा लगता था कोई पेंचकस
ले मेरे सब कल-पुर्जे ऐंठ रहा था.
घर पहुंची तो बूंदे रुक चुकी थी
और तन गया था -
एक काला उदास आसमान .
मुंह फ़ेर के मैं भी अन्दर जाने को थी ,
क़ि पानी में कुछ चमकता सा देखा -
मैले से बादल से निकलने क़ी कोशिश में था ,
इक धुंधलाया सा चाँद.
मैंने पूछा- तुम्हें तो आज न आना था ,
बादलों क़ी ओट में बैठ पुराने ज़ख्म सहलाना था ?
चाँद ने कहा ,हाँ ,पर सितारे जिद पर अड़े थे ,
जुल्मी बादलों से लड़ पड़े थे.
हाथों में हाथ धर बोले -चलो
थोडा जी बहल जाए ,
जो तुम संग आसमानों में टहल आयें .
चाँद ने फ़िर थामा मेरा भी हाथ
और पूछी सारी दिल क़ी बात .
सितारे,मैं और चाँद -बहुत देर चलते रहे.
उदासियों के अक्स आहिस्ता से ढलते रहे.
क्या बोलूँ क्या तरकीबे-ख़ुशमिज़ाजी है?
रगों में ज़ुम्बिश, पसीने क़ी बूँद,
चाँद का साथ,दिल में सुकून.
September 10, 2010
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