कभी कभी लगता है -
कितना थका सा जुमला है यह.
सिर्फ कुछ मुकम्मल मौकों पर दोहराने के लिए.
इस वतन में मेरे बहुत सी मजबूरियां हैं
नाकामियां और झुंझलाहट भी.
कि यहाँ की हर चमकती रौशनी में लगे हैं
टाट-पट्टीयों के पैबंद .
हर बुलंद इमारत और लहराती सड़क
से आती है गोरख-धंधों कि बू,
और मुफलिसी के सिसकने कि आह.
फ़साद अक्सर उगते रहते हैं-
बारिशों में फैलते कुकुरमुत्तों कि तरह.
ख़त्म होने का नाम नहीं लेते
जड़ जमाये हैं अहमक कांग्रेस घास हों जैसे.
इक बेहया आपा-धापी है ,
अपना घर बेच कर जशन मनाने की.
ख़ाली पेट,सूनी आँखों से मुंह फ़ेर कर दावतें खाने की .
जो मर्ज़ यहाँ हैं, सब लाइलाज से हैं.
उफ्फ़..
लेकिन हर बार जब यह वतन छूटा तो
खुद को कुछ ढूंढता सा पाया.
क्या वो पौ-फटे को चीर कर आती हुई आजान की आवाज़ थी?
या उसी में घुलते हुए गुरबानी के उजले बोल?
यहीं पर मैंने माता मरियम के गिरिजा में सजी आरती देखी.
और देखे थे पीपल के किसी पेड़ तले
एक मंदिर और एक दरगाह
जैसे दो पुराने दोस्त हाथ थामे खड़े हों.
बहुत खुन्नसें बेधड़क निकाली हैं मैंने इस वतन पर-
जब कहीं और गयी तो जाना कि
नज़ारे तो बहुत हैं वहां, पर नज़रिया मिलना दुशवार है.
कि बाशिंदे जुबानें संभाल कर रखते हैं -
परिंदे भी इज़ाज़त बगैर बैठते नहीं शाखों पे
इंसां की क्या मज़ाल है.
फ़िर कहीं और गयी तो आई हंसी-
कि उनका कल तो जैसे बस अभी-अभी है.
तब अहसास हुआ -
कि यहाँ तो यादों के खंडहर
हर कदम पे सदियों के किस्से संजोये हुए हैं.
हर मोड़ पर खड़े हैं पुराने पत्थर,
हर ठोकर पे उडती है धूल दास्तानों की.
उँगलियों में बसे हैं पीढ़ियों के हुनर
और एक नायाब भीड़ है कारीगरी की.
वोह जिंदादिली की खनक
पुख्ता रिश्तों की महक
मुस्कुराने के सबब
बहुत मिले हैं मुझे यहाँ.
पर आज शर्मसार, नाराज़, शिकायत -मंद
है यह वतन, पूछता है मुझसे-
सिर्फ तीन जुमले दोहरा कर
झन्डा ज़मीं पर फ़ेंक
भूल जाने वाले,
तेरी वतन-परस्ती का माने क्या है?
मेरे कान बजने लगे हैं तेरी ख़ामोशी से
बंद आँखें तेरी क्यों थकती नहीं?
कितना थका सा जुमला है यह.
सिर्फ कुछ मुकम्मल मौकों पर दोहराने के लिए.
इस वतन में मेरे बहुत सी मजबूरियां हैं
नाकामियां और झुंझलाहट भी.
कि यहाँ की हर चमकती रौशनी में लगे हैं
टाट-पट्टीयों के पैबंद .
हर बुलंद इमारत और लहराती सड़क
से आती है गोरख-धंधों कि बू,
और मुफलिसी के सिसकने कि आह.
फ़साद अक्सर उगते रहते हैं-
बारिशों में फैलते कुकुरमुत्तों कि तरह.
ख़त्म होने का नाम नहीं लेते
जड़ जमाये हैं अहमक कांग्रेस घास हों जैसे.
इक बेहया आपा-धापी है ,
अपना घर बेच कर जशन मनाने की.
ख़ाली पेट,सूनी आँखों से मुंह फ़ेर कर दावतें खाने की .
जो मर्ज़ यहाँ हैं, सब लाइलाज से हैं.
उफ्फ़..
लेकिन हर बार जब यह वतन छूटा तो
खुद को कुछ ढूंढता सा पाया.
क्या वो पौ-फटे को चीर कर आती हुई आजान की आवाज़ थी?
या उसी में घुलते हुए गुरबानी के उजले बोल?
यहीं पर मैंने माता मरियम के गिरिजा में सजी आरती देखी.
और देखे थे पीपल के किसी पेड़ तले
एक मंदिर और एक दरगाह
जैसे दो पुराने दोस्त हाथ थामे खड़े हों.
बहुत खुन्नसें बेधड़क निकाली हैं मैंने इस वतन पर-
जब कहीं और गयी तो जाना कि
नज़ारे तो बहुत हैं वहां, पर नज़रिया मिलना दुशवार है.
कि बाशिंदे जुबानें संभाल कर रखते हैं -
परिंदे भी इज़ाज़त बगैर बैठते नहीं शाखों पे
इंसां की क्या मज़ाल है.
फ़िर कहीं और गयी तो आई हंसी-
कि उनका कल तो जैसे बस अभी-अभी है.
तब अहसास हुआ -
कि यहाँ तो यादों के खंडहर
हर कदम पे सदियों के किस्से संजोये हुए हैं.
हर मोड़ पर खड़े हैं पुराने पत्थर,
हर ठोकर पे उडती है धूल दास्तानों की.
उँगलियों में बसे हैं पीढ़ियों के हुनर
और एक नायाब भीड़ है कारीगरी की.
वोह जिंदादिली की खनक
पुख्ता रिश्तों की महक
मुस्कुराने के सबब
बहुत मिले हैं मुझे यहाँ.
पर आज शर्मसार, नाराज़, शिकायत -मंद
है यह वतन, पूछता है मुझसे-
सिर्फ तीन जुमले दोहरा कर
झन्डा ज़मीं पर फ़ेंक
भूल जाने वाले,
तेरी वतन-परस्ती का माने क्या है?
मेरे कान बजने लगे हैं तेरी ख़ामोशी से
बंद आँखें तेरी क्यों थकती नहीं?
Great efforts
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