We are busy
We want things easy
Yet I often think
That too much Convenience stinks
Take the example of a good cup of tea
Which needs just boiling with milk and water to be
Till some smart-aleck decided it would be easier if we could sip
A plastic cup full of tepid water with a bag of tea going dip-dip.
When the train stops at a nameless station-
My soul longs for an earthy tea cup homespun.
But the old-fashioned times are up
And all I will get is a flavourless plasticky cup
August 17, 2010
ग़ुस्सा.
कैसा अंधड़ है ये
जो सब्ज़ शाख आ रही है रस्ते में
रौंदता चला जा रहा है
जमे पांव पेड़ों के उखाड़ता चला जा रहा है
रखी थी कितने तरतीब से चीज़ें
सभी के करीने तोड़ता चला जा रहा है
कैसी सख्त तेज़ है इसकी आवाज़
कैसा तैश-तल्ख्दार है इसका अंदाज़
फूलों कि पंखुडियां मसोसता चला जा रहा है
धूलों को राह से बटोरता चला जा रहा है
ग़ुस्सा इतना ठीक नहीं.
खुद तबाह हो कर तबाही किये जा रहा है .
August 14, 2010
Udayagiri.
Clouds swim over Udayagiri
Mahua in bloom lazily leans
Lonely Cave Gods are anointed with flowers
Black Rocks are clad in Green.
बारिशों कि धूप.
आज निकली है जो
कई दिन बाद
बादलों कि कैद से
बहुत मिजाज़ दिखाएगी
आँखें तरेरेगी पानियों पे
घटाओं को जी भर मुंह चिढ़ाएगी
भारी रहेगी हवाओं पे
साए चीर कर नेजे चुभाएगी
बारिशों कि धूप है
हिसाब बराबर कर जायेगी.
Sanchi.
Down the hill of Sanchi
Steps lead to monks quarters
Kadamb and wild Henna scent the air
Green and still stand the ancient waters.
Lights are lit in the town below
As cows and herders head home
Old stones speak so eloquently-
Of timeless glory of days bygone.
August 13, 2010
An Impression.
Restless,I walk in the damp night
Lapwings raise a shrill alarm
Only the neem tree is dancing
With a Yellow Moon in its arms.
August 12, 2010
Birthday Girl.
A happy Flower is blooming,
In my little girl's heart..
Her eyes shine like marbles
She has a smile that won't go away.
Her brother is her follower
Her parents are her willing slaves.
She dances with every step
And swings her hair so.
She is full of things to do
Will it be a red balloon here or should it be blue?
She is dying to put on her frock
All frills and flounces and bows.
When will the evening hurry-up and come?
Her Birthday needs a rousing welcome.
August 8, 2010
मेरा भारत महान..
कभी कभी लगता है -
कितना थका सा जुमला है यह.
सिर्फ कुछ मुकम्मल मौकों पर दोहराने के लिए.
इस वतन में मेरे बहुत सी मजबूरियां हैं
नाकामियां और झुंझलाहट भी.
कि यहाँ की हर चमकती रौशनी में लगे हैं
टाट-पट्टीयों के पैबंद .
हर बुलंद इमारत और लहराती सड़क
से आती है गोरख-धंधों कि बू,
और मुफलिसी के सिसकने कि आह.
फ़साद अक्सर उगते रहते हैं-
बारिशों में फैलते कुकुरमुत्तों कि तरह.
ख़त्म होने का नाम नहीं लेते
जड़ जमाये हैं अहमक कांग्रेस घास हों जैसे.
इक बेहया आपा-धापी है ,
अपना घर बेच कर जशन मनाने की.
ख़ाली पेट,सूनी आँखों से मुंह फ़ेर कर दावतें खाने की .
जो मर्ज़ यहाँ हैं, सब लाइलाज से हैं.
उफ्फ़..
लेकिन हर बार जब यह वतन छूटा तो
खुद को कुछ ढूंढता सा पाया.
क्या वो पौ-फटे को चीर कर आती हुई आजान की आवाज़ थी?
या उसी में घुलते हुए गुरबानी के उजले बोल?
यहीं पर मैंने माता मरियम के गिरिजा में सजी आरती देखी.
और देखे थे पीपल के किसी पेड़ तले
एक मंदिर और एक दरगाह
जैसे दो पुराने दोस्त हाथ थामे खड़े हों.
बहुत खुन्नसें बेधड़क निकाली हैं मैंने इस वतन पर-
जब कहीं और गयी तो जाना कि
नज़ारे तो बहुत हैं वहां, पर नज़रिया मिलना दुशवार है.
कि बाशिंदे जुबानें संभाल कर रखते हैं -
परिंदे भी इज़ाज़त बगैर बैठते नहीं शाखों पे
इंसां की क्या मज़ाल है.
फ़िर कहीं और गयी तो आई हंसी-
कि उनका कल तो जैसे बस अभी-अभी है.
तब अहसास हुआ -
कि यहाँ तो यादों के खंडहर
हर कदम पे सदियों के किस्से संजोये हुए हैं.
हर मोड़ पर खड़े हैं पुराने पत्थर,
हर ठोकर पे उडती है धूल दास्तानों की.
उँगलियों में बसे हैं पीढ़ियों के हुनर
और एक नायाब भीड़ है कारीगरी की.
वोह जिंदादिली की खनक
पुख्ता रिश्तों की महक
मुस्कुराने के सबब
बहुत मिले हैं मुझे यहाँ.
पर आज शर्मसार, नाराज़, शिकायत -मंद
है यह वतन, पूछता है मुझसे-
सिर्फ तीन जुमले दोहरा कर
झन्डा ज़मीं पर फ़ेंक
भूल जाने वाले,
तेरी वतन-परस्ती का माने क्या है?
मेरे कान बजने लगे हैं तेरी ख़ामोशी से
बंद आँखें तेरी क्यों थकती नहीं?
कितना थका सा जुमला है यह.
सिर्फ कुछ मुकम्मल मौकों पर दोहराने के लिए.
इस वतन में मेरे बहुत सी मजबूरियां हैं
नाकामियां और झुंझलाहट भी.
कि यहाँ की हर चमकती रौशनी में लगे हैं
टाट-पट्टीयों के पैबंद .
हर बुलंद इमारत और लहराती सड़क
से आती है गोरख-धंधों कि बू,
और मुफलिसी के सिसकने कि आह.
फ़साद अक्सर उगते रहते हैं-
बारिशों में फैलते कुकुरमुत्तों कि तरह.
ख़त्म होने का नाम नहीं लेते
जड़ जमाये हैं अहमक कांग्रेस घास हों जैसे.
इक बेहया आपा-धापी है ,
अपना घर बेच कर जशन मनाने की.
ख़ाली पेट,सूनी आँखों से मुंह फ़ेर कर दावतें खाने की .
जो मर्ज़ यहाँ हैं, सब लाइलाज से हैं.
उफ्फ़..
लेकिन हर बार जब यह वतन छूटा तो
खुद को कुछ ढूंढता सा पाया.
क्या वो पौ-फटे को चीर कर आती हुई आजान की आवाज़ थी?
या उसी में घुलते हुए गुरबानी के उजले बोल?
यहीं पर मैंने माता मरियम के गिरिजा में सजी आरती देखी.
और देखे थे पीपल के किसी पेड़ तले
एक मंदिर और एक दरगाह
जैसे दो पुराने दोस्त हाथ थामे खड़े हों.
बहुत खुन्नसें बेधड़क निकाली हैं मैंने इस वतन पर-
जब कहीं और गयी तो जाना कि
नज़ारे तो बहुत हैं वहां, पर नज़रिया मिलना दुशवार है.
कि बाशिंदे जुबानें संभाल कर रखते हैं -
परिंदे भी इज़ाज़त बगैर बैठते नहीं शाखों पे
इंसां की क्या मज़ाल है.
फ़िर कहीं और गयी तो आई हंसी-
कि उनका कल तो जैसे बस अभी-अभी है.
तब अहसास हुआ -
कि यहाँ तो यादों के खंडहर
हर कदम पे सदियों के किस्से संजोये हुए हैं.
हर मोड़ पर खड़े हैं पुराने पत्थर,
हर ठोकर पे उडती है धूल दास्तानों की.
उँगलियों में बसे हैं पीढ़ियों के हुनर
और एक नायाब भीड़ है कारीगरी की.
वोह जिंदादिली की खनक
पुख्ता रिश्तों की महक
मुस्कुराने के सबब
बहुत मिले हैं मुझे यहाँ.
पर आज शर्मसार, नाराज़, शिकायत -मंद
है यह वतन, पूछता है मुझसे-
सिर्फ तीन जुमले दोहरा कर
झन्डा ज़मीं पर फ़ेंक
भूल जाने वाले,
तेरी वतन-परस्ती का माने क्या है?
मेरे कान बजने लगे हैं तेरी ख़ामोशी से
बंद आँखें तेरी क्यों थकती नहीं?
August 1, 2010
Commotional Atyachar..
I wish to complain
Against mobile phones in hands of people whose tongues move faster than their brains.
Of all the various forms of public pestilence
Enforced company of a mobile-enabled blabbermouth is the biggest nuisance.
Attaching these garrulous public-speakers to a cellphone
Is akin to feeding a jackass a double dose of growth hormone.
Now, I generally am quite easygoing and pleasant
A pro in handling hecklers and escaping smilingly from jag-ratas strident.
But I shudder when I recall
my hapless encounters with people indulging in cellular 'free-for-alls'.
You maybe sitting quietly in a train trying to read or enjoying the scenery,
When you will get caught amidst noisy dialogues-all inane,grating and dreary.
Maybe you are engrossed in a movie or a musical concert-
When the guy in front of you turns out to be a cell-phone pervert.
Shattering glass and cackling child are his favourite ring tunes
And his cellphone erupts every two seconds like some maniacal baboon.
Cellphone abusers come in various types
But all of them are voluble yakkers who delight in publicly conducting their personal lives.
Be it the officious fellow who shouts at his staff while videoconferencing on a Blackberry.
Or the Nokia lady who brazenly discusses the money value of her impending Daughter-in -law with a singlemindedness scary.
The dude who wants people to know that he is settling a lover's tiff
Jabbering in the phone till everyone around gets a headache stiff.
On the one hand you are being subjected to this intrusive auditory and mental trauma;
On the other, tackling them creates unnecessary drama.
If you stop them you are meddling with their democratic right.
And if you don't you must endure the verbal blight.
No I can not stuff my ears with earplugs or I-pod,
Somehow it gives me a similar feeling of having my brains gnawed.
I cringe at these memories-even as I write this-
I wish their vocal chords get a stroke and their tongues get arthritis.
I doubt that their tiny brains will ever get fried,
For no electromagnetic radiation can penetrate their thick hides.
But I pray that there is a special place in hell
For these deranged abusers of the cell.
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